Thursday, November 25, 2010

धार्मिकता के नाम पर आडम्बर क्यों ...

{जरा देखिये कितनी विषमता है जहाँ एक बालक टुकड़ों में पल रहा है वहीँ हम धार्मिकता के नाम पर लाखों करोड़ों खर्च कर रहे हैं }
{चित्र गोगल से साभार}
   वन्दे मातरम, समस्त आत्मीय जन अपने गौरव का आदाब, सतश्री अकाल, आदाब स्वीकार करें !!
                      मेरे नवोदित ब्लॉग को आप सब अपनी टिप्पणियों और आशीर्वाद से सार्थकता प्रदान कर रहे हैं तथा आप सभी का मार्गदर्शन मुझे निरंतर प्राप्त हो रहा है जिससे मुझमे अभूतपूर्व उत्साह का संचार हो रहा है | मै आप सभी के प्रति सहृदय आभार व्यक्त करता हूँ एवं आग्रह करता हूँ की मुझ अकिंचन पर आप इसी प्रकार अपना विश्वास स्नेह और आशीर्वाद बनाये रखें और अनवरत मार्गदर्शन प्रदान करते रहें | 
                       आज मै अपने विचारों को आप तक पहुँचाने और आपके विचारों को जानने के लिए पुनः उपस्थित हूँ | विगत दिनों अपने नगर रायपुर {छत्तीसगढ़} में मुझे किंचित धार्मिक आयोजनों में शामिल होने का सौभाग्य मिला जिनमे जाकर आत्मीय प्रसन्नता का अनुभव हुआ साथ ही मन कुछ कारणों से खिन्न भी हुआ | मै आज उन खिन्नता के कारणों को ही आप के साथ बाँटना चाहता हूँ | धार्मिक आयोजनों में शामिल होने से जहाँ मन में ईश्वर, देवी देवताओं के प्रति मन में आस्था और विश्वास में वृद्धि होती है वहीँ मन ऐसे आयोजनों के माध्यम से हो रहे आडम्बर पर खिन्न महसूस करता है | वर्तमान में साधू, सन्यासी, भाग्वाताचार्यों के द्वारा भी आजकल ईश्वर से अधिक स्वयं का महिमामंडन किया जाना भी मन को दुखित करता है | मै आस्था या धार्मिकता के कतई खिलाफ नहीं वरन ऐसे आयोजनों पर होने वाले अनावश्यक खर्चों एवं ईश्वर से अधिक स्वयं को समझने वाले साधू सन्यासियों के खिलाफ हूँ |
                          वर्तमान में दृष्टिगत है की इन आयोजनों पर लाखों करोड़ों रूपये के खर्च किये जाते हैं तथा उससे कहीं अधिक धन संग्रह कर आयोजकों द्वारा न जाने किस किस प्रकार से उसका उपयोग या दुरूपयोग किया जाता है यह उस देश में जहाँ अभी भी एक बड़ी संख्या में लोगों को दो वक्त का पर्याप्त भोजन भी नसीब नहीं होता यह कहाँ तक न्यायोचित है ? आज भी हमारे देश में बच्चे पैसे के आभाव में शिक्छा से वंचित हैं, ऐसे लोगों की कमी नहीं इस देश में जिन्होंने केवल धन के आभाव में ही दम तोड़ दिया, हमारे पास इसका सबसे अच्छा उदाहरण है शहनाई उस्ताद बिस्मिलाह खां एवं प्रख्यात साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध का जिन्हें धन के आभाव में या शाशन प्रशासन के लापरवाही के चलते बीमारी से जूझते हुए दम तोडना पड़ा | अगर ऐसे लोगों को इन धार्मिकता के नाम पर आडम्बर करने वाले फिजूलखर्ची करने वाले लोगों का सहयोग मिल पाता तो शायद असमय उनका निधन नहीं होता, देश के हजारों बच्चे गरीबी, भुखमरी, असिक्छा के शिकार नहीं होते |   
                        कोई ईश्वर हमें  ये नहीं कहता की हम उनको लाखों करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाएं या उन्हें सोने चांदी  के सिहासन पर विराजमान करें | और सभी की इतनी सामर्थ्य भी नहीं है, आज दृष्टिगत होता है की सामर्थ्यवान व्यक्ति अपनी शक्ति को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से अधिक दान करता है और उससे भी अधिक उसका प्रचार करता है और ऐसे व्यक्ति जिनकी सामर्थ्य नहीं है वह उन्हें देखकर दुखी होते हैं यह कहाँ तक न्यायोचित है ? अगर हम ईश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं तो हमें कुछ ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे हम मानवमात्र की सेवा कर सकें, अगर हम किसी जरूरतमंद युवा को रोजगार मुहैया करते हैं या किसी अशिक्छित बालक को विद्यादान देते हैं, किसी निर्धन की मदद करते हैं तो ईश्वर ऐसे ही प्रसन्न हो जाता है तो फिर हमें आडम्बर की क्या आवश्यकता ? हमें इस विषय पर चिंतन अवश्य करना चाहिए और मानवमात्र की सेवा कर अपनी आस्था, अपनी श्रद्धा को और अधिक सार्थकता प्रदान करनी चाहिए | मेरा आग्रह है की आप इस विषय पर चिंतन अवश्य करें और मुझे अपने विचारों से अवश्य अवगत कराएँ |

Saturday, November 13, 2010

स्वतंत्रता किस रूप में...

{चित्र गूगल से साभार}

वन्दे मातरम,
         समस्त आत्मीय जनों को आपके अपने गौरव शर्मा "भारतीय" की ओर से आदाब, सतश्री अकाल, सादर प्रणाम  !!

              हमारा भारत वर्ष विश्व का महान राष्ट्र है जहाँ सभी को अपनी बातों को कहने की स्वतंत्रता संविधान के माध्यम से प्रदान की गयी है, जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहा जाता हैं और हम इस संवैधानिक व्यवस्था का ह्रदय से सम्मान करते हैं | लोकतंत्र में यह आवश्यक भी है की प्रत्येक नागरिक को सामान रूप से स्वतंत्रता और भावाभिव्यक्ति का अधिकार प्रदान किया जाये  पर वर्तमान में घटित कुछ घटनाओं पर नजर डालने पर अनायास ही मन में यह सवाल उत्पन्न होता है की स्वतंत्रता किस रूप में और किस स्तर तक प्रदान किया जाना चाहिए | वर्तमान में दृष्टिगत हो रहा है की कुछ तथाकथित देशभक्त, लेखक, राजनीतिज्ञ, कलाकार और भी न जाने कैसे कैसे लोग जिनके मन में जो भी आया बेखटके कह जाते हैं और वह भी बिना सोचे समझे की उनकी कही बात का जन सामान्य पर क्या असर हो सकता है | निश्चित रूप से आज मिडिया और प्रसारण तंत्र भी दिन प्रतिदिन अधिक शक्तिशाली होती जा रही है और उन बातों को भी प्रसारित करने से नहीं चुकती जिन्हें प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए, मिडिया के माध्यम से तत्काल लोगों के द्वारा कहे जाने वाले अनावश्यक बयान और टिपण्णी भी कुछ ही समय में देशभर में प्रसारित हो जाती है और प्रारंभ हो जाता है आरोप-प्रत्यारोप और वाद विवाद का सिलसिला और कुछ मामलों में तो बात दंगे फसाद तक जा पहुँचती है, इससे  नुकसान अगर किसी का होता है तो बेचारे जन सामान्य का जिसका इन सभी विवादों से दूर दूर तक कोई नाता नहीं होता है| अगर इस निरंकुश स्वतंत्रता के अधिकार के कारण देश जल उठता है और जन धन की हानी बेवजह ही होती है तो हमें विचार करना होगा की यह कहाँ तक न्यायोचित है | वर्तमान समय की आवश्यकता है की हमें इन विषयों पर चिंतन कर सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचना होगा |
                       विगत दिनों में ऐसे कई मामले दृष्टिगत होते हैं जिनमे आवेश में आकर बेहद गैर जिम्मेदार रवैये के साथ किसी भी मंच से कुछ भी कह दिया गया उदाहरण के रूप में हम बुकर अवार्ड से सम्मानित लेखिका अरुंधती राय या चाल, चरित्र और चेहरे की बात करने वाले और स्वयं को सबसे बड़ा देशभक्त संगठन मानने वाले आर. एस. एस. के पूर्व प्रमुख सुदर्शन जी को ले सकते हैं | इनके द्वारा दिए गए बयानों में किसी भी प्रकार की सार्थकता या देश की समस्याओं के प्रति चिता का भाव तो कतई नहीं है वरन देश को बाँटने और विवाद उत्पन्न करने वाले भाव अवश्य हैं | कभी कभी तो मन में यह सवाल आता है की क्या सच में ऐसे तत्व देशभक्त हो सकते हैं ? क्या वाकई इनके मन में देश के लिए सकारात्मक विचार झें ? कैसे कोई व्यक्ति किसी मंच से कश्मीर के विषय में विवादस्पद बयान दे सकता है और कैसे कोई अनुभवी व्यक्ति देश की एक सम्मानित महिला के खिलाफ अनावश्यक, अनर्गल एवं असंसदीय टिपण्णी कर सकता है |
                          मुझे बचपन में सुनी हुई एक कहानी याद आ रही है जिसका उल्लेख मै यहाँ अवश्य करना चाहूँगा, एक बार एक चीटी हाथी के पीठ में बैठकर कहीं जा रही होती है और वह उससे बार बार एक ही सवाल कर रही होती है की देखो तुम्हे कोई तकलीफ तो नहीं हो रही है न ? बोलो तो मै उतर जाती हूँ ? हाथी उसकी बात समझ नहीं पाता, अब रास्ते में एक पुल आने वाला होता है और फिर से चीटी हाथी से उसके कान के बेहद करीब  जाकर पूछती है, देखो पुल आने वाला है अभी भी वक्त है तुम कहो तो मै उतर जाती हूँ हाथी बेचारा भिनभिनाहट के अलावा कुछ भी समझ नहीं पाता है, दरअसल वह चीटी अपने होने का अहसास करना चाहती थी, अपने "अस्तित्व का अहसास" आज हमारे तथाकथित देशभक्त, राजनीतिज्ञ और भी न जाने कैसे कैसे लोग यही कर रहे हैं वे भी अपने होने का, अपने अस्तित्व का अहसास करना चाहते हैं | यहाँ मुख्य रूप से दो बिंदु विचारणीय है, प्रथम:- क्या किसी भी व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कहीं भी कुछ भी बोलने का अधिकार होना चाहिए ? द्वितीय :- क्या मिडिया और प्रसारण तंत्र को स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी दीखाने का अधिकार होना चाहिए जिससे देश में नकारात्मक प्रभाव भी क्यों न उत्पन्न हो ?
                  मेरा उद्देश्य किसी की आलोचना करना या किसी संवैधानिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाना कतई नहीं है, पर जब हमारे देश के तथाकथित चिन्तक पथभ्रष्ट हो जाते हैं और टी. आर. पी. और पैसा कमाने  के लिए टेलीविजन चैनलों पर कुछ भी समाचार एवं कार्यक्रम दिखाया जाता है {कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है की इस मामले में कलर्स चैनल और उसके कार्यक्रम "बिग बोस" ने तो इस मामले में  हद ही कर दिया है } तो एक आम भारतीय होने के नाते पीड़ा होती है | मेरा उद्देश्य इन मामलों पर सार्थक चिंतन करना है जिससे हमारे महान देश की संस्कृति को तार तार होने से बचाया जा सके और तथाकथित लोगों पर अंकुश लग  सके | मै अपने समस्त आत्मीय जनों से विनम्र अपील करता हूँ की इस विषय पर अपनी महत्वपूर्ण राय से अवश्य अवगत कराएँ |
"जय हिंद जय भारत"