Monday, September 23, 2013

स्वामी विवेकानंद की पाती...


स्वामी विवेकानंद की पाती...



गौरव शर्मा "भारतीय" 
मैं नरेंद्र वैसे आप मुझे विवेकानंद के नाम से जानते हैं। धर्म और आध्यात्म की वर्तमान दशा पर विचार करने एक बार फिर उपस्थित हूँ। भारतवर्ष के ज्ञानवान, परम प्रतापी सन्यासी वर्तमान में धर्म और आध्यात्म की जो सेवा कर रहे हैं उसे देखकर मैं भावुक हो जाता हूँ, मेरी आँखें छलक उठती हैं। मैंने मानवसेवा को ही सबसे बड़ा धर्म माना और मानव में ही ईश्वर के दर्शन किए। बड़े-बड़े महलों और आश्रमों में मुझे कभी ईश्वर नहीं मिले और न आध्यात्म के उच्च आसनों को प्राप्त ही कर सका पर आज के तपस्वी संतों को ईश्वरत्व की प्राप्ति महलों से भी अधिक आलिशान आश्रमों और मंदिरों में ही होती है। भारतवर्ष के कुछ चमत्कारिक संत स्वयं में ईश्वर के दर्शन भी कराने लगे हैं और जनता को भी अब नारायण दरिद्र में नहीं राजसी संतों में ही नजर आने लगे हैं। मुझे ज्ञान था कि भारत तरक्की कर रहा है पर इस बात से मैं अनजान था कि वैज्ञानिकों से भी अधिक तरक्की भारत के संत समुदाय ने की है। जानकर हैरानी होती है कि कुछ संत इतने आधुनिक हो गए कि किरपा भी मोबाइल के मैसेज की तरह भेजने लगे हैं। ब्रम्हचर्य और आत्मनियंत्रण को मैंने आध्यात्म का पहला चरण माना। प्रत्येक नारी को माँ का स्थान दिया पर आज के महान संतों ने तो नारी की अस्मिता को अपनी पैतृक संपत्ति समझ ली, उसे कुचलने और मसलने लगे, वाकई महान हैं ऐसे संत। मैंने इसी भारतवर्ष में स्पष्टत: कहा था कि ब्राह्मण हो या सन्यासी, किसी की भी बुराई को क्षमा नहीं मिलनी चाहिए पर आज मैं देखता हूँ कि कुछ अज्ञानी और धर्मांध लोग पापियों के बचाव में खड़े हो गए हैं। धर्म और अध्यात्म के नाम पर चल रहे बाजार के सबसे बड़े तिजारती बनकर इतरा रहे हैं। मैं संतों का अनुशरण करने वाले भारतवर्ष के हजारों लाखों अंधभक्तों से पूछना चाहता हूँ कि क्या तुमने कभी अपने गुरु की परीक्षा ली है? मैंने तो लगातार चार वर्षों तक हर तरह से अपने गुरु की परीक्षा ली और जब मुझे स्वामी रामकृष्ण परमहंस में विश्वास हुआ तब मैंने उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार किया। मैं भारत की सनातन धर्म में आस्था रखने वाले हजारों-हजार बहनों और भाइयों से पूछता हूँ कि आखिर क्यों किसी भी तथाकथित संत के बहकावे में आकर उन्हें अपना सब कुछ सौंप देते हो? भारतवासियों, दर्शन, विज्ञान और अन्य किसी भी विधा की थोड़ी भी सहायता न लेकर मेरे गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस ने विश्व इतिहास में पहली बार घोषणा की कि सभी धर्म मार्ग सत्य हैं। अंग्रेजी शिक्षा के अभिमान में डूबे लोगों को फटकारते हुए स्वामी जी ने कहा था कि, `ऐ पढ़े लिखे मूर्खों ! अपनी बुद्धि पर वृथा गर्व न करो` कभी मैं भी करता था, किन्तु विधाता ने मुझे ऐसे व्यक्ति के चरणों में अपना जीवन मंत्र पाने को बाध्य किया जो निरक्षर महाचार्य, घोर मूर्तिपूजक और दिखने में पागल जैसा था। मेरे गुरु पुरुष और स्त्री, धनी और दरिद्र, शिक्षित और अशिक्षित, ब्राह्मण और चंडाल, इन सब भेदभावों से ऊपर उठ चुके थे और उनकी यही बात मुझे उनके प्रति आकर्षित करती थी। मैं पूछता हूँ कि आज ऐसा कौन गुरु या संत हैं जिनके भीतर वैसी ईश्वर भक्ति, वैसी क्षमता या वैसा दिव्य ज्ञान है? स्वामी जी शांति के दूत थे, मानवता की जीवंत प्रतिमूर्ति थे। यही वजह थी कि मैं ईश्वर को पाने के लिए विक्षिप्त की तरह भटकता हुआ उनके पास पहुंचा और उन्होंने मुझे साक्षात ईश्वर के दर्शन करा दिए। स्वामीजी ने हम सभी शिष्यों को अभाव में रहने की शिक्षा दी और स्वयं अपना जीवन अभावों में ही व्यतीत किया। वे अक्सर कहा करते थे `रुपया आग है, उसके संपर्क में आओगे तो जल जाओगे` उन्होंने जीवन में मुद्रा का स्पर्श तक नहीं किया। आज है कोई सन्यासी जो ऐसा करता हो? हमें ज्ञान देते समय कभी उन्होंने भेदभाव नहीं किया। आगे बैठने वाले शिष्यों से अधिक धन और पीछे बैठने वाले शिष्यों से कम धन नहीं लिया। कभी दसवंद की मांग नहीं की। कभी अपने फोटो की पूजा ईश्वर की तरह करने की सीख नहीं दी। कभी उन्होंने नागिन डांस नहीं किया। आध्यात्म के नाम पर गाने बजाने का भौंडा प्रदर्शन नहीं किया। रहा सवाल मेरा, तो मैं ठहरा फकीर, विदेशों में चार वर्ष बीता दिए पर पैसों को छूने की जरूरत न पड़ी। अब तुम ही तय करो कि तुम्हे कैसा संत और कैसा गुरु चाहिए ? भारतवर्ष की वर्तमान युवा पीढ़ी को देखकर भी मैं चिंतित हूँ कि क्या ये वही युवा हैं जिनके आधार पर मैंने भारत को विश्वगुरु के पद पर पुन: स्थापित करने का स्वप्न देखा था ? क्या ये वही युवा हैं जिन्हें मैंने उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रुको का संदेश दिया था ? मैं फकीर था, हूँ और रहूँगा ! सन्यासी और परिव्राजक बनने के पहले भी मेरे पास कुछ नहीं था और सन्यास ग्रहण करने के बाद भी, मैं तो बस यही कहना चाहता हूँ कि उठो, जागो और धर्म व आध्यात्म के नाम पर चल रहे बाजार को बंद करो।
आशीर्वाद
विवेकानंद
(प्रदेश व देश के विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित आलेख)

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