Monday, September 23, 2013

कांग्रेस की पाती...


गौरव शर्मा "भारतीय" 
मैं कांग्रेस हूँ… कांग्रेस पार्टी, जिसे 72 प्रतिनिधियों ने 28 दिसंबर 1885 को मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में जन्म दिया था। शुरूवाती दिनों में मेरा दृष्टिकोण एक कुलीन वर्गीय संस्था का था। अपने जन्म के कुछ ही वर्षों बाद मैंने वर्ष 1907 में विभाजन की पीड़ा झेली और आज तक झेल ही रही हूँ। कभी मुझे गरम दल और नरम दल के नाम से विभाजन की पीड़ा से दो चार होना पड़ा तो कभी इंदिरा गाँधी के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए मेरा विभाजन किया गया। उन विभाजनों की पीड़ा को मैं आज भी महसूस करती हूँ पर आज की स्थिति में हर रोज और हर क्षण जिस तरह मेरा विभाजन हो रहा है उसके सामने वह पीड़ा कुछ नहीं है। लाल-बाल-पाल और गोखले-नौरोजी ने तो मेरा विभाजन सिद्धांतों और आजादी की लड़ाई में जीत के उद्देश्य से किया था। लेकिन आज के नेता मेरा विभाजन अपने सत्ता सुख के उद्देश्य के लिए कर रहे हैं, एक बार नहीं बार-बार कर रहे हैं। अब मैं इतना टूट चुकी हूँ, इतनी बिखर चुकी हूँ कि मुझे खुद का असली चेहरा भी याद नहीं रहा। मैंने आजादी की लड़ाई लड़ी, महात्मा गांधी ने मुझे नेतृत्व दिया। नेहरु और पटेल ने मुझे जीवनभर मजबूती दी। समय के साथ मुझे सुभाषचन्द्र बोस जैसा अध्यक्ष भी मिला जिसने पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोकर जन-जन के मन में देशभक्ति के पौधे को सिंचित किया पर आज न जाने कैसे-कैसे लोग मेरा नेतृत्व करने का दावा कर रहे हैं? कोई त्याग की प्रतिमा कहलाने के लिए देश को एक निरीह, लाचार और बेबस इंसान के हवाले कर मुझे कमजोर कर रहा है तो कोई बाहें चढ़ाकर मेरे नाम से देश की मासूम जनता को धमकी दे रहा है। समझ नहीं आता है कि कौन नरम दल का है और कौन गरम दल का ? नरमी और गरमी के इस नाटक को जब भी मैं समझने का प्रयास करती हूँ, खुद ही उलझ कर रह जाती हूँ ! मैं मानती हूँ कि मेरे जन्म के समय एओ ह्यूम एक ऐसी संस्था चाहते थे जो अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों की हो। एक ऐसी संस्था, जो ब्रिटिश सरकार की भक्त हो पर राष्ट्रवादी नेताओं के राजनीति में प्रवेश के बाद मुझे राष्ट्रवादी संस्था होने का गौरव भी प्राप्त हुआ। मैं पढ़े लिखे भारतीय अंग्रेजों की गिरफ्त से निकलकर मजदूर और किसानों तक जा पहुंची। लोगों के दिलों में बसने लगी। देश की आजादी के लिए लोग मुझे आशा भरी निगाहों से देखने लगे। मैंने आम जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास भी किया पर आज लोग मुझे अविश्वास की नजर से देखने लगे हैं, मेरा माखौल उड़ाते हैं। जो भारत मेरे रग-रग में बसता है उसे मुझसे मुक्त करना चाहते हैं। शायद वे सही भी हों क्योंकि जिस तरह आज मेरे नाम का दुरूपयोग हो रहा है इसके पहले कभी नहीं हुआ है। कभी नेहरु, पटेल, सुभाष और शास्त्री कांग्रेसी कहलाया करते थे और मुझे उनपर गर्व हुआ करता था। जब लोग उन्हें सम्मान देते थे तो मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था पर आज कलमाड़ी, सुखराम और न जाने कैसे-कैसे लोग खुद को कांग्रेसी बताकर कांग्रेस के सिद्धांतों और रीति नीति के साथ बलात्कार कर रहे हैं। जिस देश में आजादी के पहले केवल भारतीय बसा करते थे वहां हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, तमिल, तेलगु, कन्नड़ और न जाने कितने लोगों को बसा दिया। भारत को जाति, धर्म प्रांत और न जाने किन-किन विभक्तियों में बाँट दिया। भाई को भाई से अलग करने और लड़ाने का हक किसने दिया था इन मौकापरस्त नेताओं को ? जिस जनता ने इन नेताओं को चुनकर भेजा इन्होंने उसे भी नहीं छोड़ा। जनता आज भी दो वक्त की रोटी के लिए तरस रही है पर कुछ लोग 35 लाख का शौचालय बनाकर राष्ट्र की सेवा कर रहे हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर कॉमन मेन के वेल्थ से ही गेम कर गए। इन नेताओं की कारस्तानी की वजह से कब तक मैं बदनामी का बोझ अपने सर पर लेकर फिरती रहूँ ? और कब तक ऐसे नेता मेरे नाम को बदनाम करते रहेंगे ? आज मुझे महात्मा गांधी की वह बात याद आती है, उन्होंने कहा था कि आजादी मिल गई है कांग्रेस को अब समाप्त कर दो ! वाकई उस समय अगर मेरा विसर्जन हो गया होता तो आज मुझे इतनी जिल्लत न सहनी पड़ती। अंत में मैं बस यही कहना चाहती हूँ कि असली कांग्रेसियों को पहचानो, उन कांग्रेसियों को पहचानो जो आज भी मेरे सिद्धांतों पर चल रहे हैं। केवल ऐसे लोगों को अपना समर्थन दो जो देश को आगे बढाने में लगे हैं न कि देश का बंठाधार कर खुद का विकास कर रहे हैं।
वन्दे मातरम !
(प्रदेश व देश के विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित आलेख)

स्वामी विवेकानंद की पाती...


स्वामी विवेकानंद की पाती...



गौरव शर्मा "भारतीय" 
मैं नरेंद्र वैसे आप मुझे विवेकानंद के नाम से जानते हैं। धर्म और आध्यात्म की वर्तमान दशा पर विचार करने एक बार फिर उपस्थित हूँ। भारतवर्ष के ज्ञानवान, परम प्रतापी सन्यासी वर्तमान में धर्म और आध्यात्म की जो सेवा कर रहे हैं उसे देखकर मैं भावुक हो जाता हूँ, मेरी आँखें छलक उठती हैं। मैंने मानवसेवा को ही सबसे बड़ा धर्म माना और मानव में ही ईश्वर के दर्शन किए। बड़े-बड़े महलों और आश्रमों में मुझे कभी ईश्वर नहीं मिले और न आध्यात्म के उच्च आसनों को प्राप्त ही कर सका पर आज के तपस्वी संतों को ईश्वरत्व की प्राप्ति महलों से भी अधिक आलिशान आश्रमों और मंदिरों में ही होती है। भारतवर्ष के कुछ चमत्कारिक संत स्वयं में ईश्वर के दर्शन भी कराने लगे हैं और जनता को भी अब नारायण दरिद्र में नहीं राजसी संतों में ही नजर आने लगे हैं। मुझे ज्ञान था कि भारत तरक्की कर रहा है पर इस बात से मैं अनजान था कि वैज्ञानिकों से भी अधिक तरक्की भारत के संत समुदाय ने की है। जानकर हैरानी होती है कि कुछ संत इतने आधुनिक हो गए कि किरपा भी मोबाइल के मैसेज की तरह भेजने लगे हैं। ब्रम्हचर्य और आत्मनियंत्रण को मैंने आध्यात्म का पहला चरण माना। प्रत्येक नारी को माँ का स्थान दिया पर आज के महान संतों ने तो नारी की अस्मिता को अपनी पैतृक संपत्ति समझ ली, उसे कुचलने और मसलने लगे, वाकई महान हैं ऐसे संत। मैंने इसी भारतवर्ष में स्पष्टत: कहा था कि ब्राह्मण हो या सन्यासी, किसी की भी बुराई को क्षमा नहीं मिलनी चाहिए पर आज मैं देखता हूँ कि कुछ अज्ञानी और धर्मांध लोग पापियों के बचाव में खड़े हो गए हैं। धर्म और अध्यात्म के नाम पर चल रहे बाजार के सबसे बड़े तिजारती बनकर इतरा रहे हैं। मैं संतों का अनुशरण करने वाले भारतवर्ष के हजारों लाखों अंधभक्तों से पूछना चाहता हूँ कि क्या तुमने कभी अपने गुरु की परीक्षा ली है? मैंने तो लगातार चार वर्षों तक हर तरह से अपने गुरु की परीक्षा ली और जब मुझे स्वामी रामकृष्ण परमहंस में विश्वास हुआ तब मैंने उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार किया। मैं भारत की सनातन धर्म में आस्था रखने वाले हजारों-हजार बहनों और भाइयों से पूछता हूँ कि आखिर क्यों किसी भी तथाकथित संत के बहकावे में आकर उन्हें अपना सब कुछ सौंप देते हो? भारतवासियों, दर्शन, विज्ञान और अन्य किसी भी विधा की थोड़ी भी सहायता न लेकर मेरे गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस ने विश्व इतिहास में पहली बार घोषणा की कि सभी धर्म मार्ग सत्य हैं। अंग्रेजी शिक्षा के अभिमान में डूबे लोगों को फटकारते हुए स्वामी जी ने कहा था कि, `ऐ पढ़े लिखे मूर्खों ! अपनी बुद्धि पर वृथा गर्व न करो` कभी मैं भी करता था, किन्तु विधाता ने मुझे ऐसे व्यक्ति के चरणों में अपना जीवन मंत्र पाने को बाध्य किया जो निरक्षर महाचार्य, घोर मूर्तिपूजक और दिखने में पागल जैसा था। मेरे गुरु पुरुष और स्त्री, धनी और दरिद्र, शिक्षित और अशिक्षित, ब्राह्मण और चंडाल, इन सब भेदभावों से ऊपर उठ चुके थे और उनकी यही बात मुझे उनके प्रति आकर्षित करती थी। मैं पूछता हूँ कि आज ऐसा कौन गुरु या संत हैं जिनके भीतर वैसी ईश्वर भक्ति, वैसी क्षमता या वैसा दिव्य ज्ञान है? स्वामी जी शांति के दूत थे, मानवता की जीवंत प्रतिमूर्ति थे। यही वजह थी कि मैं ईश्वर को पाने के लिए विक्षिप्त की तरह भटकता हुआ उनके पास पहुंचा और उन्होंने मुझे साक्षात ईश्वर के दर्शन करा दिए। स्वामीजी ने हम सभी शिष्यों को अभाव में रहने की शिक्षा दी और स्वयं अपना जीवन अभावों में ही व्यतीत किया। वे अक्सर कहा करते थे `रुपया आग है, उसके संपर्क में आओगे तो जल जाओगे` उन्होंने जीवन में मुद्रा का स्पर्श तक नहीं किया। आज है कोई सन्यासी जो ऐसा करता हो? हमें ज्ञान देते समय कभी उन्होंने भेदभाव नहीं किया। आगे बैठने वाले शिष्यों से अधिक धन और पीछे बैठने वाले शिष्यों से कम धन नहीं लिया। कभी दसवंद की मांग नहीं की। कभी अपने फोटो की पूजा ईश्वर की तरह करने की सीख नहीं दी। कभी उन्होंने नागिन डांस नहीं किया। आध्यात्म के नाम पर गाने बजाने का भौंडा प्रदर्शन नहीं किया। रहा सवाल मेरा, तो मैं ठहरा फकीर, विदेशों में चार वर्ष बीता दिए पर पैसों को छूने की जरूरत न पड़ी। अब तुम ही तय करो कि तुम्हे कैसा संत और कैसा गुरु चाहिए ? भारतवर्ष की वर्तमान युवा पीढ़ी को देखकर भी मैं चिंतित हूँ कि क्या ये वही युवा हैं जिनके आधार पर मैंने भारत को विश्वगुरु के पद पर पुन: स्थापित करने का स्वप्न देखा था ? क्या ये वही युवा हैं जिन्हें मैंने उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रुको का संदेश दिया था ? मैं फकीर था, हूँ और रहूँगा ! सन्यासी और परिव्राजक बनने के पहले भी मेरे पास कुछ नहीं था और सन्यास ग्रहण करने के बाद भी, मैं तो बस यही कहना चाहता हूँ कि उठो, जागो और धर्म व आध्यात्म के नाम पर चल रहे बाजार को बंद करो।
आशीर्वाद
विवेकानंद
(प्रदेश व देश के विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित आलेख)

Wednesday, September 4, 2013

निर्भया की पाती...


निर्भया की पाती...
 गौरव शर्मा "भारतीय"
दामिनी, निर्भया, देश की बेटी और भी न जाने देश ने मुझे कितने नाम दिए ! मुझे न्याय दिलाने पूरा देश खड़ा हो गया पर क्या मुझे न्याय मिला ? यह केवल मेरा प्रश्न नहीं बल्कि देश की उन हजारों लाखों दामिनी और निर्भया का प्रश्न है जो समाज की गंदी मानसिकता का शिकार बन रही हैं। `नारी` शब्द से ही प्रतीत होता है कि नर स्वयं इसमें समाहित है। एक नारी ही नर, नारी व नारायण तीनों को उत्पन्न करती है, इसलिए नर से भी उत्तम स्थान नारी का है। `यत्र नारी पूज्यन्ते,रमन्ते तत्र देवता` यह एक अकेला वाक्य नारी के बारे में सम्पूर्ण ज्ञान कराने में सक्षम है पर मैंने कभी नहीं कहा कि मेरी पूजा की जाए। कोई नारी कभी पूजनीय नहीं बनना चाहती। कोई नहीं चाहती कि उसे उपासना की वास्तु बनाकर घर के किसी कोने में कैद कर दिया जाए या पुरुष उनके नाम की माला जपते नजर आएं। लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि उसके मान सम्मान और प्रतिष्ठा का बीच चौराहे पर मजाक बनाया जाए। मेरे साथ उन दरिंदों ने दुष्कर्म किया, मुझे सड़क पर निर्वस्त्र फेंक दिया पर उसके बाद क्या हुआ ? सड़क से गुजरने वाले हर इंसान ने मुझे हैरत और वासना की नजर से देखा मगर मेरे तन पर एक कपड़ा डालने की जहमत भी नहीं उठाई। तो क्या उन्होंने मेरे साथ दुष्कर्म नहीं किया ? आज हजारों युवतियां समाज के इसी दुष्कर्म और दुर्व्यवहार की शिकार हो रही हैं इसलिए आज भी यह प्रश्न प्रासंगिक है। बेटी का जन्म होने पर ख़ुशी तो होती है पर मन में कसक भी होती है कि काश बेटा हुआ होता… वहीँ से बेटी और बेटे का फर्क प्रारंभ हो जाता है जो जीवन भर साथ चलता है। बात-बात पर बेटी को कमजोर होने का अहसास कराया जाता है, आखिर क्यों ? हमारे देश में कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स और प्रतिभा पाटिल का उदाहरण तो दिया जाता है पर जब कोई बिटिया उस दिशा में कदम बढ़ाती है तो आसपास के लोग ही उसके बेटी होने का अहसास कराकर कदम पीछे खींच लेते हैं। काश, जो लोग बेटी को बेटी होने का अहसास कराते हैं वे बेटे को भी आदर्श बेटा बनने की प्रेरणा देते। बेटे को अहसास कराते कि नारी उपभोग की वस्तु नहीं सम्मान की परिभाषा है। न्याय और व्यवस्था से तो मैं उसी दिन नाउम्मीद हो चुकी थी जिस दिन मैं समाज की गंदी सोच का शिकार बनी पर आज मुझे देश के उन लाखों युवाओं ने भी निराश कर दिया है जो मुझे न्याय दिलाने के लिए डंडे और लाठियां खाने से भी पीछे नहीं हटे थे। उसी जोश और आत्मविश्वास की आवश्यकता आज भी है जब देश के तमाम हिस्सों में युवतियों को जबरन `दामिनी और निर्भया` बनने पर मजबूर किया जा रहा है। मुझे हैरत होती है जब देश में झालियामारी जैसे कांड हो जाते हैं उसके बावजूद देश की जनता खामोश होती है जहाँ 36 मासूम बच्चियों को दुष्कर्म का दंश झेलना पड़ता है। मुझे तब भी अफ़सोस होता है जब नारी की महत्ता का गुणगान करने वाले संत पर दुष्कर्म का आरोप लगता है और कथित आरोपी को बचाने के लिए देश के राजनीतिज्ञ खड़े हो उठते हैं। ऐसी स्थिति में आखिर कैसे कोई `निर्भया` न्याय की उम्मीद कर सकती है? कैसे हजारों दमिनियों को देश के कानून और व्यवस्था पर विश्वास हो सकता है? मैं तो ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने मुझे अपने पास बुला लिया पर आज भी मेरी आत्मा उन हजारों `दामिनी और निर्भया` में बसती है जिन्हें जीवन भर दुष्कर्म का दंश झेलना होगा। काश मेरी पीड़ा को देश के कर्णधार और 121 करोड़ लोग महसूस कर पाते और किसी बेटी को दामिनी या निर्भया कहलाने की जिल्लत न उठानी पड़ती।
(लेखक छत्तीसगढ़ के युवा पत्रकार व साहित्यकार हैं)

बापू की पाती मनमोहन के नाम...


बापू की पाती मनमोहन के नाम...
  
 गौरव शर्मा "भारतीय"
प्रिय मनमोहन,
काफी दिनों से आपको पत्र लिखने का विचार कर रहा था पर आज देश की वर्तमान व्यवस्था ने मुझे आपको पत्र लिखने पर मजबूर कर दिया। मैं लंबे समय से आपका प्रशंसक रहा हूँ क्योंकि बुरा न देखो, बुरा न सुनो और बुरा न कहो के मेरे सिद्धांतों का आपने अक्षरशः पालन किया है। बुरा होते देख आप अपनी आँखें बंद कर लेते हैं। बुरी बातों को सुनकर आप कानों पर ऊँगली देते हैं पर बुरा कहने के संबंध में मैं टिपण्णी करने में असमर्थ हूँ क्योंकि मैंने आपको कुछ खास मौकों पर ही बोलते सुना है, शायद तब भी आप बोल नहीं, पढ़ रहे थे। मेरे अहिंसा के सिद्धांतों को भी आपने बखूबी अपनाया है। एक गाल पर तमाचा मारने पर जिस तरह मैंने दूसरा गाल आगे बढ़ाने की बात कही ठीक उसी तरह आपने एक बार पाकिस्तानी सेना द्वारा भारत के पांच सैनिकों का शीश काटने के बाद चीन को अपने देश में घुसपैठ करने का अवसर दे दिया पर हिंसा नहीं होने दी। देश आपके कुशल नेतृत्व में इन दिनों काफी तरक्की कर रहा है। ए. राजा, कनिमोझी और कलमाड़ी जैसे लोगों को देखता हूँ तो वाकई ख़ुशी से मेरी आखें छलक जाती है। इतनी तरक्की तो चीन और जापान आजादी के दसियों सालों के गुजरने के बाद भी नहीं कर पाए पर भारत ने आप जैसे महान नेताओं के नेतृत्व में महज 67 वर्षों में ही अच्छी तरक्की की है। कुछ बातों से मैं परेशान भी हूँ। बड़ी पीड़ा होती है जब भारतीय मुद्रा की डॉलर के सामने घुटने टेकने की खबरें सुनता हूँ। भारतीय मुद्रा में मेरी फोटो छपी है और जब-जब भारतीय मुद्रा डॉलर के मुकाबले कमजोर होती है तो मुझे अहसास होता है जैसे मैंने ही अमेरिका और ब्रिटेन के सामने घुटने टेक दिए हों। ऐसा लगता है मानो मैंने ही कोई अपराध किया है जिसकी सजा मेरे देश की मुद्रा को दी जा रही है। मैं बड़ी विनम्रता के साथ आपसे आग्रह करना चाहता हूँ कि आप भारतीय मुद्रा से मेरी तस्वीर हटा दें। मेरी तस्वीर संसद भवन और विधानसभाओं से भी हटवाने की कृपा करें। जिस संस्था के भीतर सत्य और अहिंसा के साथ प्रतिदिन हिंसा की जाती हो उस संस्था के बाहर मेरी तस्वीर और प्रतिमा का काम ही क्या ? आज आपके मंत्री गरीबी और भुखमरी के नाम पर तरह-तरह के प्रयोग कर रहे हैं। हर कोई गरीबी की परिभाषा सुविधाजनक ढंग से गढ़ने का प्रयास कर रहा है। गरीबी, भूख और भोजन के साथ मैंने भी प्रयोग किया था। मैंने फल, बकरी के दूध और जैतून के तेल पर जीवन निर्वाह कर खर्चों को कम करने का प्रयास किया और इसमें सफल भी हुआ, तब मैंने आम जनता से इन साधनों पर निर्वाह करने की अपील की पर आपके मंत्री स्वयं तो टूजी, थ्रीजी और सीडब्ल्यूजी पर गुजारा करते हैं और दूसरों को 5 रूपये में भरपेट भोजन करने की सलाह देते हैं। आज देश में कांग्रेस की सरकार है, उसी कांग्रेस की जिसे किसी जमाने में हमने अपने खून से सींचा था। वही कांग्रेस जिसने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी। आज आपको भी उसी कांग्रेस में रहते हुए एक लड़ाई लड़नी है। गरीबी भ्रष्टाचार और अनैतिकता के खिलाफ आवाज बुलंद करना है। 121 करोड़ लोगों को सम्मान और स्वाभिमान का जीवन देना है पर इसके लिए आपको अपने आसपास के कुछ लोगों का परिचय सत्य और नैतिकता जैसे शब्दों से कराना होगा। किसी जमाने में मैंने हिटलर को पत्र लिखकर अहिंसा के मार्ग पर चलने की सीख दी थी इसलिए मैं जनता हूँ कि यह कितना मुश्किल है पर आपको अपने देश को बचाने के लिए ऐसा करना होगा। मैं एक साधारण मानव था और मरने के बाद भी स्वयं को साधारण ही मानता हूँ। और आखिर में जब भी आप सत्य और न्याय की लड़ाई में मेरी आवश्यकता महसूस करेंगे मैं आपका साथ अवश्य दूंगा।
बापू के आशीर्वाद...
आपका
मो. क. गाँधी
(लेखक छत्तीसगढ़ के युवा पत्रकार व साहित्यकार हैं)

Sunday, August 18, 2013

मिनी माता की पाती


- गौरव शर्मा "भारतीय"
मैं मिनी माता… वही मिनी माता जिसकी मौत 11 अगस्त 1972 को हो गई थी. आज मेरे भतीजों (डॉ. महंत के अनुसार उनके स्वर्गीय पिता बिसाहूदास महंत को मिनी माता राखी बाँधा करती थी इस लिहाज से मिनी माता डॉ. महंत की बुआ मानी जाएँगी और महंत के ही अनुसार जोगी उनके बड़े भाई हैं तो मिनी माता उनकी भी बुआ मानी जाएँगी) ने मुझे अंतर्कलह, गुटबाजी और विषवमन का माध्यम बनाकर एक बार फिर जीवित कर दिया है या शायद मेरे विचारों, मेरे सिद्धांतों और भावनाओं का गला घोंटकर मुझे फिर से मार दिया है… आप जो समझना चाहें समझ सकते हैं! मेरी मौत के बाद से अब तक मेरे भतीजे को मेरी पुण्यतिथि मनाने की याद नहीं आई पर इस बार प्रदेश कांग्रेस का मुखिया बनने के बाद उसने चुनावी वैतरणी को पार करने के लिए प्रदेशभर में मेरी पुण्यतिथि मनाने का ऐलान कर दिया है. जोर-शोर से पूरे प्रदेश में मेरी पुण्यतिथि मनाई जा रही है पर मैं यह नहीं समझ पा रही हूँ कि पुण्यतिथि के मंच से प्रदेश को आगे बढाने और सर्वहारा वर्ग की चिंता के स्थान पर हाथ पैर काटने और आखें फोड़ने का संदेश क्यों दिया जा रहा है? मैंने तो समाज को एकता के सूत्र में पिरोने का प्रयास किया था. जातियों के भेद को मिटाकर हर वर्ग को सम्मान से जीने का हक़ देने की बात की थी पर आज मेरे तथाकथित भतीजों ने मेरे ही नाम को जातियों को बाँटने और जहर उगलने का हथियार बना लिया ? आज मैं यह सोचने पर भी मजबूर हूँ कि आखिर मैंने ऐसी कौन सी गलती की थी जिसकी सजा मुझे मेरे मरने के बाद भुगतनी पड़ रही है? क्या समाज से छुआ-छूत मिटाने का प्रयास करना मेरी गलती थी या एकता का संदेश देकर मैंने गलती की? जो समाज मुझे अपना कहकर मेरी पुण्यतिथि के बहाने राजनैतिक लाभ लेने का प्रयास कर रहा है उसे तो मैंने सम्मान और स्वाभिमान से जीने की प्रेरणा दी थी. फिर आज क्यों आँख फोड़ने और हाथ पैर काटने की धमकी देने वाले निरंकुश नेता के चरणों में उस स्वाभिमान और सम्मान को गिरवी रखा जा रहा है. मेरा बड़ा भतीजा चीख चीख कर कहता है कि मिनी माता के कामों को आगे बढ़ाना है… तो क्या लोगों के हाथ पैर काटकर और आँखें फोड़कर मेरे बचे कामों को आगे बढ़ाया जा रहा है? राजनीति मैंने भी की थी पर कभी किसी के खिलाफ विषवमन नहीं किया. मेरे ज़माने में भी गुटबाजी और आपसी मतभेद थे पर कभी किसी नेता ने हाथ पैर काटने की धमकी नहीं दी और न अपने स्वार्थ के लिए लोगों को आपस में लड़ाने का काम किया. उस समय भी प्रदेश में विद्या भैया और श्यामा भैया जैसे नेता थे जिन्होंने आपसी मतभेद के बावजूद कभी किसी के खिलाफ जहर नहीं उगला. किसी के मान सम्मान और स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने का काम नहीं किया. विद्या भैया भी कांग्रेस छोड़कर गए पर उन्होंने किसी के खिलाफ कड़े शब्द कहे ऐसा मुझे याद नहीं. श्यामाचरण जी को तो पार्टी से एक-दो नहीं बल्कि पूरे बारह वर्षों तक अलग रहना पड़ा पर न उन्होंने कभी किसी के खिलाफ कुछ कहा और न आक्रोश ही प्रकट किया. जवाहरलाल नेहरु और सुभाष चन्द्र बोस में जीवन भर मतभेद रहे पर जवाहर लाल नेहरु मरते दम तक बोस की पत्नी एमिली शेंकेल बोस की मदद करते रहे. सुभाष चन्द्र बोस ने महात्मा गाँधी की मर्जी के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा और भारी मतों से जीते भी पर गाँधी जी के सम्मान के चलते उन्होंने इस्तीफा दे दिया. मैंने उस दौर की राजनीति देखी थी और मुझे भ्रम था कि मेरी मौत के बाद भी राजनीति वैसी ही होगी पर मेरे भतीजों ने दिखा दिया कि आज की राजनीति कालिख की राजनीति है. मुझे ख़ुशी है कि मेरी मौत विमान दुर्घटना में ही हो गई थी वर्ना जो लोग मेरी मौत के बाद मेरे नाम और मेरे विचारों को मारने पर तुले हैं क्या वे जीते जी अपने लाभ के लिए मेरा गला नहीं घोंट देते ? बहरहाल जाते-जाते अपने ढाई करोड़ बच्चों को यही संदेश देना चाहती हूँ कि चाहे मेरे तथाकथित भतीजे जो भी कहें या करें पर एकता अखंडता और भाईचारे के उस पाठ को कभी मत भूलना जिसे सीखाने के लिए मैंने जीवन भर संघर्ष किया और अंत में अपने प्राणों की आहुति दे दी.
जय सतनाम.
तुम्हारी अपनी मिनी माता.

(प्रदेश व देश के विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित आलेख)

Friday, June 14, 2013

चौरासी साल के युवा थे विद्या भैया...




 - गौरव शर्मा "भारतीय"

सुकमा के दरभा घाटी में बर्बर नक्सली हमले में घायल विद्याचरण शुक्ल अंततः छत्तीसगढ़ को रोता बिलखता छोड़कर चले गए। उनके निधन के साथ ही उस स्वर्णिम युग का भी अवसान हो गया जिसमे उन्होंने 50 वर्षों से भी अधिक समय तक देश की राजनीति की दशा व दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाई। चौरासी वर्ष के इस बुजुर्ग राजनेता को कभी वयोवृद्ध नहीं कहा गया। वे सदैव विद्या भैया का संबोधन ही पाते रहे। उनके साथ बुजुर्गों की भीड़ नहीं बल्कि युवाओं की फ़ौज हुआ करती थी। विद्या भैया युवाओं के प्रेरणाश्रोत रहे हैं। युवा कार्यकर्ताओं को उनके आशीर्वाद व मार्गदर्शन में अपना उज्ज्वल भविष्य नजर आया करता था। उनके हजारों समर्थकों को विश्वास था कि वे एक बार फिर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को पुनर्जीवित कर देंगे। विद्या भैया एक ऐसे राजनेता थे जिन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपने साथ साथ छत्तीसगढ़ को भी स्थापित किया। नौ बार उन्होंने भारतीय संसद में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व किया। दिल्ली में रायपुर की पहचान थे विद्या भैया। इंदिरा गाँधी, पीवीनरसिम्हा राव, वीपी सिंह व चंद्रशेखर के मंत्रिमंडल में वीसी शुक्ल कई महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे। एक समय उनकी गिनती देश के सर्वाधिक ताकतवर राजनेताओं में होने लगी थी। उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी देखा जाने लगा था। आपातकाल के समय विद्याचरण शुक्ल केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। मीडिया को नियंत्रित करने व इंदिरा गाँधी के निर्देशों का अक्षरशः पालन करवाने के लिए उनके कार्यकाल को आज भी याद किया जाता है। 2 अगस्त 1929 को रायपुर में जन्में विद्याचरण शुक्ल ने नागपुर के मौरिस कालेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। राजनीति में आने से पहले उन्होंने एक शिकार कंपनी भी बनाई पर जब उनका मन इस काम में नहीं लगा तो उन्होंने अपने पिता पंडित रविशंकर शुक्ल की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए राजनीति में सक्रिय हुए और 1957 में महासमुंद लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़कर सबसे कम उम्र के सांसद बनने का गौरव हासिल किया। उनकी रूचि हमेशा राष्ट्रीय राजनीति में रही पर छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वे प्रथम मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार माने गए। उनके पिता मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे अतः उनकी भी इच्छा थी कि प्रथम मुख्यमत्री बनकर वे छत्तीसगढ़ को गढ़ सकें। एक ऐसे छत्तीसगढ़ का निर्माण कर सकें जो शांत समृद्ध व खुशहाल हो। जहाँ हर वर्ग को सामान अवसर प्राप्त हो पर उनका यह स्वप्न अधुरा ही रह गया। वे छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री नहीं बन सके। 2013 का विधानसभा चुनाव उनके लिए फिर एक अवसर लेकर आया था। विद्या भैया पूरी शिद्दत से कांग्रेस को छत्तीसगढ़ में पुनर्जीवित व स्थापित करने में जुटे थे। परिवर्तन यात्रा के प्रारंभ से सुकमा के अंतिम सभा तक वे साथ रहे। चौरासी वर्ष की उम्र में भी उनकी चुस्ती और फुर्ती देखकर युवा कार्यकर्त्ता भी अचंभित हो जाते। बावजूद तमाम परेशानियों के उनके चेहरे पर कभी तनाव नजर नहीं आया करता था। वे जब भी कार्यकर्ताओं या आम लोगों के सामने आते तो उनके चेहरे पर सहज मुस्कान होती और यही मुस्कान उनके हजारों समर्थकों में अभूतपूर्व उत्साह का संचार कर देती। लंबे राजनैतिक जीवन में उन्होंने कभी किसी पर अनर्गल आरोप नहीं लगाए। कभी किसी के दिल को ठेस पहुंचाने वाली टिपण्णी नहीं की। यही वजह है कि कांग्रेस के साथ ही अन्य राजनैतिक दलों में भी उनके मित्र थे। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के संबंध में विद्याचरण शुक्ल का योगदान अविस्मरणीय था। उन्होंने बस्तर से लेकर सरगुजा तक यात्रा की जिसमे युवा वर्ग ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। दिल्ली में उन्होंने अपने हजारों समर्थकों के साथ गिरफ्तारी भी दी। कई वर्षों तक वे छत्तीसगढ़ संघर्ष मोर्चा के बैनरतले राज्य निर्माण के लिए संघर्ष करते रहे। राज्य बनने के बाद जब उन्हें लगा कि जिन उद्देश्यों के लिए छत्तीसगढ़ का निर्माण किया गया था उन्हीं उद्देश्यों की अनदेखी की जा रही है तो वे विरोध करने से भी नहीं चुके। छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़िया के हित की रक्षा के लिए उन्होंने कांग्रेस का परित्याग करने से भी परहेज नहीं किया। इसीलिए आज उनके चले जाने के बाद एक छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया है। उनके हजारों समर्थक स्वयं को अनाथ महसूस कर रहे हैं। विद्याचरण शुक्ल के साथ वह स्वर्णिम दौर भी थम गया जिसके बगैर छत्तीसगढ़ के राजनीति का इतिहास अधुरा है। सच कहा जाए तो छत्तीसगढ़ की राजनीति में फिर कोई विद्या भैया पैदा होगा इसकी संभावना कम ही है।

Saturday, June 8, 2013

तोते की व्यथा...


-गौरव शर्मा "भारतीय"

मेरा नाम तोताराम है ! जी हाँ... मै वही तोताराम हूँ जो कल तक लोगों को उनका भविष्य बताया करता था। लचर प्रशासनिक तंत्र व कुछ भ्रष्ट नौकरशाहों की वजह से इन दिनों मै चर्चा में हूँ। हाल ही में देश के उच्चतम न्यायालय ने मेरी तुलना सीबीआई से कर दी है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा टिप्पणी करने के बाद ही मै चर्चा में आया हूँ। इस टिप्पणी के बाद मीडिया ने मुझे सर आँखों पर बैठा लिया। लोग मेरी तस्वीरों के साथ प्रदर्शन करने लगे। स्वार्थ के सागर में गले तक डूब चुके कुछ लोगों ने तो मेरे नाम का प्रयोग करने के लिए कापीराईट कराने की भी तैयारी कर ली है। जो भी हो पर मुझे इस टिप्पणी से गहरा आघात पहुंचा है कि मेरी तुलना सीबीआई से की गई। अब आप ही बताइए, बार बार रंग बदलने वाले सीबीआई की तुलना मुझसे करना कहाँ तक उचित है ? कभी शेर की तरह दहाड़ने तो कभी चूहे की तरह भयभीत होने वाली सीबीआई की तुलना आखिर तोते से कैसे की जा सकती है ? जब-जब देश में सरकार बदलती है, सीबीआई गिरगिट की तरह रंग बदलती है। आश्चर्य है कि सीबीआई की तुलना मुझसे की जाती है जबकि न मै अवसरवादी हूँ और न पलायनवादी। मै तो कल तक लोगों को उनका भविष्य बताया करता था। `तपतकुरु` और `राम-राम` जप कर लोगों को हर क्षण ईश्वर के करीब होने का संदेश दिया करता था। और आज... मुझे एक कथा की याद आ रही है, एक बार किसी नगर में धर्मसभा का आयोजन हुआ। उसमे भाग लेने देश भर से विद्वतजन पहुंचे। मै भी अपने विद्वान स्वामी के साथ उस सभा में पहुंचा। जब मेरे स्वामी के बोलने का समय आया तो उन्होंने मुझे सामने कर दिया और कहा कि मुझसे अधिक विद्वान मेरा तोता है, सभा में यही शास्त्रार्थ करेगा। मैंने अपने स्वामी द्वारा सिखाई गई सारी बातें सभा में उपस्थित जनों को बताई। मैंने अमन का संदेश देकर सभी को स्तब्ध कर दिया, पर अफ़सोस उस समय मीडिया नहीं हुआ करता था इसलिए उसका अटेंशन नहीं मिला। सच कहूँ तो मेरी नाराजगी उच्चतम न्यायालय से नहीं है, मै नाराज हूँ उन दो कौड़ी के नेताओं से जिन्होंने मुझे एक दूसरे को नीचा दिखाने का माध्यम बना लिया है। मै नाराज हूँ तथ्यहीन खबर दिखाने व अनर्गल प्रलाप करने वाली मीडिया से जिसे हर ऐरी गैरी बात को ब्रेकिंग न्यूज़ बनाने की आदत है। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि इसी वजह से मै अब शहरों व गावों में आसानी से नजर नहीं आता। इसी वजह से मै चुपचाप पिंजरे में पड़ा राम नाम जपता रहता हूँ। भले मेरी तुलना कोई सीबीआई से करे पर मै जनता हूँ कि मैंने आज तक किसी के साथ पक्षपात नहीं किया अपने स्वामी के हितों की रक्षा के लिए कभी किसी को डराया-धमकाया नहीं। मैंने तो हमेशा प्रेम, सद्भाव, संवेदनशीलता व एकता का पैगाम दिया है। न जाने लोग क्यों मेरी तुलना सीबीआई से कर मेरा अपमान करने पर अमादा हैं। खैर... मै तो गाँधी के सिद्धांतों पर चलने वाला तुच्छ प्राणी हूँ। ईश्वर से यही प्रार्थना कर सकता हूँ कि वे लोगों को सद्बुद्धि दे। गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले सीबीआई को इतना हौसला दे कि वह भी मेरी तरह सच को सच और झूठ को झूठ कहने का सहस कर सके। आपने मेरी व्यथा-कथा को सुना इसलिए मै आप इंसानों का दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। 

(विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित)