सुकमा के दरभा घाटी में बर्बर नक्सली हमले में घायल विद्याचरण शुक्ल अंततः
छत्तीसगढ़ को रोता बिलखता छोड़कर चले गए। उनके निधन के साथ ही उस स्वर्णिम
युग का भी अवसान हो गया जिसमे उन्होंने 50 वर्षों से भी अधिक समय
तक देश की राजनीति की दशा व दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाई। चौरासी
वर्ष के इस बुजुर्ग राजनेता को कभी वयोवृद्ध नहीं कहा गया। वे सदैव विद्या
भैया का संबोधन ही पाते रहे। उनके साथ बुजुर्गों की भीड़ नहीं बल्कि युवाओं
की फ़ौज हुआ करती थी। विद्या भैया युवाओं के प्रेरणाश्रोत रहे हैं। युवा
कार्यकर्ताओं को उनके आशीर्वाद व मार्गदर्शन में अपना उज्ज्वल भविष्य नजर
आया करता था। उनके हजारों समर्थकों को विश्वास था कि वे एक बार फिर
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को पुनर्जीवित कर देंगे। विद्या भैया एक ऐसे राजनेता
थे जिन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपने साथ साथ छत्तीसगढ़ को भी स्थापित
किया। नौ बार उन्होंने भारतीय संसद में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व किया।
दिल्ली में रायपुर की पहचान थे विद्या भैया। इंदिरा गाँधी, पीवीनरसिम्हा
राव, वीपी सिंह व चंद्रशेखर के मंत्रिमंडल में वीसी शुक्ल कई महत्वपूर्ण
विभागों के मंत्री रहे। एक समय उनकी गिनती देश के सर्वाधिक ताकतवर
राजनेताओं में होने लगी थी। उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी देखा
जाने लगा था। आपातकाल के समय विद्याचरण शुक्ल केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण
मंत्री थे। मीडिया को नियंत्रित करने व इंदिरा गाँधी के निर्देशों का
अक्षरशः पालन करवाने के लिए उनके कार्यकाल को आज भी याद किया जाता है। 2
अगस्त 1929 को रायपुर में जन्में विद्याचरण शुक्ल ने नागपुर के मौरिस कालेज
से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। राजनीति में आने से पहले उन्होंने एक शिकार
कंपनी भी बनाई पर जब उनका मन इस काम में नहीं लगा तो उन्होंने अपने पिता
पंडित रविशंकर शुक्ल की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए राजनीति में सक्रिय हुए
और 1957 में महासमुंद लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़कर सबसे कम उम्र के सांसद
बनने का गौरव हासिल किया। उनकी रूचि हमेशा राष्ट्रीय राजनीति में रही पर
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वे प्रथम मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार
माने गए। उनके पिता मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे अतः उनकी भी इच्छा
थी कि प्रथम मुख्यमत्री बनकर वे छत्तीसगढ़ को गढ़ सकें। एक ऐसे छत्तीसगढ़ का
निर्माण कर सकें जो शांत समृद्ध व खुशहाल हो। जहाँ हर वर्ग को सामान अवसर
प्राप्त हो पर उनका यह स्वप्न अधुरा ही रह गया। वे छत्तीसगढ़ के प्रथम
मुख्यमंत्री नहीं बन सके। 2013 का विधानसभा चुनाव उनके लिए फिर एक अवसर
लेकर आया था। विद्या भैया पूरी शिद्दत से कांग्रेस को छत्तीसगढ़ में
पुनर्जीवित व स्थापित करने में जुटे थे। परिवर्तन यात्रा के प्रारंभ से
सुकमा के अंतिम सभा तक वे साथ रहे। चौरासी वर्ष की उम्र में भी उनकी चुस्ती
और फुर्ती देखकर युवा कार्यकर्त्ता भी अचंभित हो जाते। बावजूद तमाम
परेशानियों के उनके चेहरे पर कभी तनाव नजर नहीं आया करता था। वे जब भी
कार्यकर्ताओं या आम लोगों के सामने आते तो उनके चेहरे पर सहज मुस्कान होती
और यही मुस्कान उनके हजारों समर्थकों में अभूतपूर्व उत्साह का संचार कर
देती। लंबे राजनैतिक जीवन में उन्होंने कभी किसी पर अनर्गल आरोप नहीं लगाए।
कभी किसी के दिल को ठेस पहुंचाने वाली टिपण्णी नहीं की। यही वजह है कि
कांग्रेस के साथ ही अन्य राजनैतिक दलों में भी उनके मित्र थे। छत्तीसगढ़
राज्य निर्माण के संबंध में विद्याचरण शुक्ल का योगदान अविस्मरणीय था।
उन्होंने बस्तर से लेकर सरगुजा तक यात्रा की जिसमे युवा वर्ग ने बढ़ चढ़कर
भाग लिया। दिल्ली में उन्होंने अपने हजारों समर्थकों के साथ गिरफ्तारी भी
दी। कई वर्षों तक वे छत्तीसगढ़ संघर्ष मोर्चा के बैनरतले राज्य निर्माण के
लिए संघर्ष करते रहे। राज्य बनने के बाद जब उन्हें लगा कि जिन उद्देश्यों
के लिए छत्तीसगढ़ का निर्माण किया गया था उन्हीं उद्देश्यों की अनदेखी की जा
रही है तो वे विरोध करने से भी नहीं चुके। छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़िया के हित
की रक्षा के लिए उन्होंने कांग्रेस का परित्याग करने से भी परहेज नहीं
किया। इसीलिए आज उनके चले जाने के बाद एक छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक शून्य
पैदा हो गया है। उनके हजारों समर्थक स्वयं को अनाथ महसूस कर रहे हैं।
विद्याचरण शुक्ल के साथ वह स्वर्णिम दौर भी थम गया जिसके बगैर छत्तीसगढ़ के
राजनीति का इतिहास अधुरा है। सच कहा जाए तो छत्तीसगढ़ की राजनीति में फिर
कोई विद्या भैया पैदा होगा इसकी संभावना कम ही है।