Wednesday, September 4, 2013

निर्भया की पाती...


निर्भया की पाती...
 गौरव शर्मा "भारतीय"
दामिनी, निर्भया, देश की बेटी और भी न जाने देश ने मुझे कितने नाम दिए ! मुझे न्याय दिलाने पूरा देश खड़ा हो गया पर क्या मुझे न्याय मिला ? यह केवल मेरा प्रश्न नहीं बल्कि देश की उन हजारों लाखों दामिनी और निर्भया का प्रश्न है जो समाज की गंदी मानसिकता का शिकार बन रही हैं। `नारी` शब्द से ही प्रतीत होता है कि नर स्वयं इसमें समाहित है। एक नारी ही नर, नारी व नारायण तीनों को उत्पन्न करती है, इसलिए नर से भी उत्तम स्थान नारी का है। `यत्र नारी पूज्यन्ते,रमन्ते तत्र देवता` यह एक अकेला वाक्य नारी के बारे में सम्पूर्ण ज्ञान कराने में सक्षम है पर मैंने कभी नहीं कहा कि मेरी पूजा की जाए। कोई नारी कभी पूजनीय नहीं बनना चाहती। कोई नहीं चाहती कि उसे उपासना की वास्तु बनाकर घर के किसी कोने में कैद कर दिया जाए या पुरुष उनके नाम की माला जपते नजर आएं। लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि उसके मान सम्मान और प्रतिष्ठा का बीच चौराहे पर मजाक बनाया जाए। मेरे साथ उन दरिंदों ने दुष्कर्म किया, मुझे सड़क पर निर्वस्त्र फेंक दिया पर उसके बाद क्या हुआ ? सड़क से गुजरने वाले हर इंसान ने मुझे हैरत और वासना की नजर से देखा मगर मेरे तन पर एक कपड़ा डालने की जहमत भी नहीं उठाई। तो क्या उन्होंने मेरे साथ दुष्कर्म नहीं किया ? आज हजारों युवतियां समाज के इसी दुष्कर्म और दुर्व्यवहार की शिकार हो रही हैं इसलिए आज भी यह प्रश्न प्रासंगिक है। बेटी का जन्म होने पर ख़ुशी तो होती है पर मन में कसक भी होती है कि काश बेटा हुआ होता… वहीँ से बेटी और बेटे का फर्क प्रारंभ हो जाता है जो जीवन भर साथ चलता है। बात-बात पर बेटी को कमजोर होने का अहसास कराया जाता है, आखिर क्यों ? हमारे देश में कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स और प्रतिभा पाटिल का उदाहरण तो दिया जाता है पर जब कोई बिटिया उस दिशा में कदम बढ़ाती है तो आसपास के लोग ही उसके बेटी होने का अहसास कराकर कदम पीछे खींच लेते हैं। काश, जो लोग बेटी को बेटी होने का अहसास कराते हैं वे बेटे को भी आदर्श बेटा बनने की प्रेरणा देते। बेटे को अहसास कराते कि नारी उपभोग की वस्तु नहीं सम्मान की परिभाषा है। न्याय और व्यवस्था से तो मैं उसी दिन नाउम्मीद हो चुकी थी जिस दिन मैं समाज की गंदी सोच का शिकार बनी पर आज मुझे देश के उन लाखों युवाओं ने भी निराश कर दिया है जो मुझे न्याय दिलाने के लिए डंडे और लाठियां खाने से भी पीछे नहीं हटे थे। उसी जोश और आत्मविश्वास की आवश्यकता आज भी है जब देश के तमाम हिस्सों में युवतियों को जबरन `दामिनी और निर्भया` बनने पर मजबूर किया जा रहा है। मुझे हैरत होती है जब देश में झालियामारी जैसे कांड हो जाते हैं उसके बावजूद देश की जनता खामोश होती है जहाँ 36 मासूम बच्चियों को दुष्कर्म का दंश झेलना पड़ता है। मुझे तब भी अफ़सोस होता है जब नारी की महत्ता का गुणगान करने वाले संत पर दुष्कर्म का आरोप लगता है और कथित आरोपी को बचाने के लिए देश के राजनीतिज्ञ खड़े हो उठते हैं। ऐसी स्थिति में आखिर कैसे कोई `निर्भया` न्याय की उम्मीद कर सकती है? कैसे हजारों दमिनियों को देश के कानून और व्यवस्था पर विश्वास हो सकता है? मैं तो ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने मुझे अपने पास बुला लिया पर आज भी मेरी आत्मा उन हजारों `दामिनी और निर्भया` में बसती है जिन्हें जीवन भर दुष्कर्म का दंश झेलना होगा। काश मेरी पीड़ा को देश के कर्णधार और 121 करोड़ लोग महसूस कर पाते और किसी बेटी को दामिनी या निर्भया कहलाने की जिल्लत न उठानी पड़ती।
(लेखक छत्तीसगढ़ के युवा पत्रकार व साहित्यकार हैं)

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