- गौरव शर्मा "भारतीय"
प्रदेश में हुए नक्सली हमले के बाद एक बार फिर आरोप-प्रत्यारोप, बैठकों व आश्वासनों का दौर प्रारंभ हो गया है। कांग्रेसी राज्य सरकार पर परिवर्तन यात्रा को पर्याप्त सुरक्षा न देने का आरोप लगा रहे हैं वहीँ मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह कांग्रेसियों को ऐसे मामले पर राजनीति न करने की सलाह दे रहे हैं। तमाम गतिविधियों के बीच नक्सलवाद के सफाए का मुद्दा एक बार फिर गौण हो गया है। राज्य सरकार सर्वदलीय बैठक व विधानसभा के वशेष सत्र के माध्यम से नक्सलवाद के खिलाफ रणनीति तय करने का प्रयास कर रही है। कांग्रेस ने इस बैठक का ही बहिष्कार कर दिया है। प्रश्न यह है कि क्या सर्वदलीय बैठक, विधानसभा का विशेष सत्र या दो चार अधिकारियों पर कार्रवाई से नक्सलवाद समाप्त होगा ? कांग्रेसी चाहते हैं कि मुख्यमंत्री इस्तीफ़ा दें, क्या उनके इस्तीफे से नक्सलवाद की समस्या समाप्त होगी या कांग्रेस के दिवंगत नेता वापस आ जाएंगे ? यक्ष प्रश्न है कि नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए और कितनी घटनाओं का इंतजार किया जा रहा है? इस हमले ने जितने प्रश्न राज्य सरकार के समक्ष खड़े किये हैं उतने ही प्रश्न केंद्र के समक्ष भी है। सबसे पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय कटघरे में खड़ा है कि नक्सल प्रभावित राज्य सरकारों के साथ समन्वित रणनीति बनाकर कार्य क्यों नहीं किया जा रहा है? हकीकत यह है कि 1967 से लेकर 2013 तक नक्सलवाद पर बातें तो खूब की गई किन्तु आज तक केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा स्पष्ट रणनीति नहीं बनाई जा सकी जिससे नक्सलवाद के खात्मे की दिशा में निरंतर प्रयास किया जा सके। नक्सलियों ने तब से लेकर अबतक स्वयं को ताकतवर बनाने की दिशा में निरंतर कार्य किया पर हमारी सरकारें कमजोर ही साबित हुईं। नक्सलवाद से लड़ाई के नाम पर आज भी तीर कमान लिए आदिवासियों की कल्पना की जाती है जबकि नक्सली रॉकेट लांचर तक बना चुके हैं। पुलिस के जवानों से अपेक्षा की जाती है कि कई साल पुराने हथियार लेकर वे एके 47 व 56 जैसे अत्याधुनिक हथियारों का सामना करें। आखिर यह कैसे संभव है? जब तक जवानों को पर्याप्त सुरक्षा उपकरण, बेहतर संवाद व्यवस्था व उनके परिजनों को संरक्षण नहीं दिया जाएगा तबतक कोई जवान आखिर कैसे नक्सलियों के सामने सीना तानकर खड़ा होने का साहस कर पाएगा। समस्या यह है कि आज भी हम पुलिस बनकर या जनप्रतिनिधि बनकर नक्सलियों से लड़ने के बारे में सोचते हैं जबकि अपराधी को पकड़ने के लिए अपराधी की तरह सोचा जाना आवश्यक है। इसी तरह अगर नक्सलियों के हौसले पस्त करना हैं तो उनकी तरह ही सोचना होगा। उनकी हरकतों पर नजर रखकर उसके मुकाबले उत्कृष्ट कार्ययोजना का निर्धारण करना होगा। उनकी भाषा, कार्यशैली व मंशा को समझना होगा। जिस तरह नक्सलियों ने बस्तर के सुदूर अंचलों तक अपना नेटवर्क स्थापित किया है, उसी तरह हमारे जवानों को भी आदिवासियों का विश्वास अर्जित करना होगा। उनसे बेहतर संवाद व तालमेल स्थापित कर अपना नेटवर्क नक्सलियों से भी मजबूत करना होगा। यह भी विचार करने की आवश्यकता है कि यह सब क्या उन जवानों व कर्मचारियों द्वारा संभव है जिन्हें सजा काटने के लिए बस्तर भेजा गया है। बस्तर को प्रदेश के सबसे संवेदनशील व कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों व कर्मचारियों की आवश्यकता है पर बस्तर का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा की वहां पदस्थ अधिकांश कर्मचारी किसी भी तरह अपने दिन काटने व अपने मन पसंद स्थान में स्थानान्तरण कराने में लगे हैं। मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा संतुष्टिजनक कार्य न करने पर कर्मचारियों को बस्तर भेजने की धमकी दी जाती है। इसका आशय यह है कि बस्तर को सेल्युलर जेल मान लिया गया है जहाँ कर्मचारियों को कालापानी की सजा के लिए भेजा जाता है। नक्सलवाद का समाधान करने की दिशा में निरंतर प्रयास का इससे बेहतर समय और नहीं हो सकता। प्रदेश ही नहीं देश की जनता भी अब चाहती है कि राम जी का ननिहाल कहलाने वाले प्रदेश में अब राम राज्य स्थापित हो। छत्तीसगढ़ में एक ऐसा राज आए कि बस्तर के आदिवासी से लेकर प्रदेश का अंतिम व्यक्ति तक शांति समृद्धि व खुशहाली के साथ मुस्कुरा सके। चारों ओर हर्ष का वातावरण निर्मित हो सके। आवश्यकता इस बात की है कि अब नक्सलवाद के उन्मूलन की दिशा में इमानदारी पूर्वक ठोस प्रयास किया जाए न कि कोरे आश्वासनों व आरोप-प्रत्यारोप में समय व्यर्थ गंवाया जाए।
(प्रदेश के विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित आलेख)
vicharniy aalekh.........
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